"मैं प्रेम हूं उस स्वच्छंद सांस का जो कैद है तुम्हारी धड़कनों में एक बेगुनाह मुजरिम हो जैसे..!"
“धैर्य एवं त्याग समझना हो तो रूक्मिणी का समझो। जो श्रीकृष्ण से विवाहोपरांत अर्द्धांगिनी बनने के पश्चात् भी अपने पति परमेश्वर के साथ पराई स्त्री का नाम जुड़ता हुआ देख उन्हें ईश्वर मान पूजती रही…!”
“भविष्य में यदि कभी ईश्वर ने चाहा और हम मिले। तो मै अन्य प्रेमियों की तरह तुम्हें भेट में गुलाब झुमके नहीं दूंगा। मैं तुम्हें बिल्ब् पत्र व शमी के दो पौधे भेट करूँगा।
और बदले में तुलसी का पौधा भेट लूंगा तुमसे जो अपने घर के आंगन में स्थापित कर प्रतिदिन प्रेम से सिंचित करूँगा..!”
“हम अस्थियां बन तेरे हाथों में फिर भी मिलेंगे। सूर्य की पहली किरण के साथ तुम कर देना प्रवाहित उन अस्थियों को दो फूल,कुछ चावल..!
मैं लौटकर आऊंगा गंगा की लहरों में तुम्हारे पैरो के अंतिम चिन्ह चूमने। उन्हें समेट अपने हृदय के कलश में,मैं बह जाऊंगा आनन्द से अभिभूत उस नयी दुनिया मे…!”
“हर प्रतीक्षा का अंत करने ईश्वर स्वयं आते हैं। फिर चाहे वो सती के प्रेम की हो, शबरी के वात्सल्य की या मेरे धैर्य की।”
“जीवन के एक पड़ाव पर कुछ लोग बहुत याद आते हैं, ये वही लोग होते हैं जिनको हमने एक समय पर ठुकरा दिया होता है।”
"जी चाहता है
इन हथेलियों में क़ैद कर लेता ये वक़्त जो तुम्हारें साथ बहुत तेजी सेे गुजर गया। मैं तुम्हारें प्रेम में ज़रा सा स्वार्थी हो जाता!"
“प्रतिज्ञा भीष्म जैसी,कर्म कृष्ण से, त्याग रघु साहमारी छाती में साँस तेरीतू ही दीर्घ बाक़ी सब लघु सा…!”