स्वामी विवेकानंद के विचार दलितों पर

इस अंक में स्वामी विवेकानंद के विचार संकलित हैं। स्वामी विवेकानंद जी की मान्यता थी। कि भारत के सर्वसाधारण मैं यदि धर्म का संचार हो जाए, तो हम छोटी-छोटी समस्याओं से सहज ही मुक्ति पा जाएंगे।

Swami vivekanand ke vichar

राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त दोषों को समाप्त करने के लिए उन्होंने धर्म को मान्यता दी। धर्म को वे मनुष्य में निहित देवत्व का प्रतीक मानते थे और उसे अनुभव और अनुभूति की वस्तु स्वीकार करते थे। धर्म के आधार पर उन्होंने व्यक्ति और समाज में पवित्रता, भक्ति, विनयशीलता, सत्यता, प्रेम तथा नि:स्वार्थ सेवा की भावना को पुनर्जीवित करने की कामना की ।

स्वामी विवेकानंद के विचार दलितों पर

स्वामी विवेकानंद के विचार दलितों पिछड़ों पर- स्वामी विवेकानंद ने कहा था, सारे अनर्थों की जड़ है हमारी गरीबी। समाज के दलित लोगों के प्रति हमारा बड़ा कर्तव्य है। उनको शिक्षा देना उन्हें बताना कि तुम भी मनुष्य हो। तुम भी प्रयत्न करने पर तुम भी उन्नति कर सकते हो। स्वामी विवेकानंद का विचार था कि हमारा राष्ट्र जो झोपड़ियों में निवास करता है। वो राष्ट्र अपना पौरूष खो बैठा, अपना व्यक्तित्व भूल चुका है। लोग समझ बैठे हैं कि जिस किसी के पास पैसा या शक्ति हो। बे उसी के पैरों तले कुचल जाने के लिए पैदा हुए हैं। उन्हें उनका खोया हुआ व्यक्तित्व प्रदान करना होगा।

विवेकानंद जी दरिद्रनारायण के दुखों से द्रवित और दलित वर्ग के प्रति किए जाने वाले अन्याय से व्यथित थे। स्वामी विवेकानंद जी के मन में उन्हें अन्याय और अत्याचार से मुक्त कराने की अदम्य भावना भरी हुई थी। उन्होंने कहा था- भारत के दरिद्र और दलितों के प्रति हमारे जो भाव हैं। उनका ख्याल आते ही मेरा ह्रदय असीम वेदना से कराह उठता है। उन्हें कोई अवसर नहीं मिला ना सम्मान से जीने का न ऊपर उठने का।

दलितों और पिछड़ों के मन में यह बात बैठानी होगी कि, धर्म पर ब्राह्मणों की भांति उनका भी अधिकार है। यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते हो तो तुम्हारी शिक्षा और संस्क्रती को धिक्कार है और धिक्कार है है तुम्हारे वेद-वेदान्त के अध्ययन को ।

महान विचारक विवेकानंद जी

विश्व का बड़े-से-बड़ा समाजवादी विचारक भी इतनी गहन वेदना से भरकर गरीबों और दलितों के कल्याण के लिए कर्मरत नहीं हुआ। स्वामी जी जाति को धर्म का अंग नहीं मानते थे। उनके विचार से जन्म के आधार पर जातीय श्रेष्ठता घोषित करने वाला, ब्राह्मण भी नीच कर्म में लिप्त हो सकता है। कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के कारण इस समाज को अनेक स्तरों पर विभाजित कर रखा है। इसके लिए धर्म की भी आड़ ली गई यदि इस पृथ्वी को रहने योग्य बनाना है। तो इन कृत्रिम विभाजनों को समाप्त करना होगा।

जाति व्यवस्था पर स्वामी विवेकानंद के विचार –

 स्वामी विवेकानंद जी जाति-पाँत के घोर विरोधी थे। बे इस सामाजिक जीवन का अघोर कलंक मानते थे। इसने एक वर्ग को बहुत पीछे धकेल दिया और दूसरे के हाथों में शोषण के असीम अधिकार दे दिए। उन्होंने अस्पृश्यता की दीवार को समाप्त करके विविधता के बीच एकता स्थापित करने का प्रयास किया और समझाया कि ऊंची जाति वालों का कल्याण इसी में है कि वे नीची जातियों को उनके यथोचित अधिकार दिलाने में सहायता करें।

स्त्रियों पर विचार-

स्वामी जी का विचार था कि प्रत्येक राष्ट्र को अपनी नारी जाति का सम्मान करना चाहिए। जो देश अथवा राष्ट्र नारी जाति का आदर नहीं करता वह कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। इस संबंध में उन्होंने इन विचारों को स्वीकार किया- “यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता:”। इसके लिए उन्होंने स्त्रियों को शिक्षित बनाए जाने पर बल दिया और कहा कि सबसे पहले स्त्री जाति को सुशिक्षित करो, फिर वह अपने आप ही सुधारों की ओर बढ़ जाएगी।

विवेकानंद जी के धर्मांतरण पर विचार

 स्वामी जी ने सभी धर्मों में मूलभूत एक तत्व की समानता का अनुभव किया! उन्होंने धर्म परिवर्तन को अनुपयुक्त पाया और कहा कि अपने धर्म की पूजा के साथ-साथ हमें दूसरे धर्मों के श्रेष्ठ तत्वों को भी ग्रहण करना चाहिए! ईसाई को हिंदू या बौद्ध नहीं होना चाहिए और ना हिंदू अथवा बौद्ध को ईसाई ही! पर हां, प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के सार भाग का आत्मसात करें! और अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए बुद्धि के अनुसार विकास करता चले।

स्वामी विवेकानंद के विचार राजनीति पर

मूलत: तो स्वामी जी धर्म पुरुष थे , किंतु भारतीय संस्कृति के सजग प्रहरी होने के जाते उन्होंने तत्कालीन राजनीति को भी प्रभावित किया। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार कोई भी राजनीतिक सफलता तब तक अर्थहीन है, जब तक जनता के भरण-पोषण का प्रश्न हल नहीं हो जाता! किसी भी राष्ट्र का विकास तभी संभव है, जब उसके नागरिक सुखी और संपन्न हों।

राजनीतिक क्षेत्र में स्वामी विवेकानंद जी ने स्वतंत्रता को परम आवश्यक बताया और कहा, ‘हमें ऐसे सामाजिक बंधनों को, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग में बाधक हो शीघ्रता से समाप्त कर देना चाहिए।’

स्वामी जी का राष्ट्रवाद

स्वामी जी कट्टर राष्ट्रवादी थे, किंतु उनका राष्ट्रवाद मानवता का पोषक था! उनकी देशभक्ति स्वार्थ पूर्ण व दूषित भावनाओं से करोड़ों मील दूर थी! उनके राष्ट्रवाद का लक्ष्य था समग्र मानव-जाति की सेवा के साथ-साथ भारतीयों की गरीवी और अज्ञानता को दूर करना! स्वामी जी का राष्ट्रवाद धर्म और कर्म के दो मुख्य आधारों पर खड़ा है! धर्म ने उसे गति दी और कर्म ने उसे प्रेरणा।

विवेकानंद के विचार वेद-वेदान्त पर

 मनुष्य के समग्र विकास के लिए स्वामी जी ने वेदांत का सहारा लिया! और अद्वैत वेदांत को व्यवहारिक बनाने के लिए उसकी वैज्ञानिक व्याख्या की! इस प्रकार स्वामी जी ने धर्म और संस्कृति का निनाद करते हुए सोए हुए भारत. को उसे अतीत गौरव से परिचित कराया! और वेदों और उपनिषदों के प्राचीन आत्मज्ञान के संदेश को पाश्चात्य देश होता गुंजारित किया! और सिद्ध किया कि हमारा इतिहास महान है। संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है! हमारा साहित्य सबसे उन्नत साहित्य है। हमारा धर्म विज्ञान की कसौटी पर सबसे अधिक खरा उतरता है।

वेदांत के ऐसे महान प्रचारक, भारतीय संस्कृति के विशिष्ट उद्घोषक, मानवता के महत् पोशक! समाजवादी विचारधारा के विराट विचारक और प्रेरक स्वामी विवेकानंद के विचार! देश को भाभी युवा पीढ़ी के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करेंगे।

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