प्रेम क्या है गीता के अनुसार

इस अंक में प्रेम क्या है गीता के अनुसार ? समझने की कोशिश करते हैं। गीता विश्व का एक मात्र ऐसा ग्रंथ है जो जीवन जीना सिखाता है। श्री मद भागवत हमें प्रेम सिखाती है और शांति प्रेम में ही निहित होती है। यदि आपके जीवन में प्रेम है तो ही आपके जीवन में शांति है। यदि आपके जीवन में प्रेम नहीं है तो शांति भी नहीं है। प्रेम चाहे भौतिक जगत का हो या ईश्वरीय प्रेम हो। दुर्योधन के जीवन में सब कुछ था लेकिन प्रेम नहीं था। उसके मन में तो अहंकार, ईर्ष्या और द्वेष था, जिसके मन में ये घर कर जाते हैं । उसका पतन निश्चित रूप से तय है।

प्रेम क्या है गीता के अनुसार

जो स्वार्थ की मनोदशा से किसी से प्रेम करते हैं, गीता के अनुसार ऐसे प्रेम को सच्चा नहीं माना जा सकता है। भगवान और भक्त के बीच में अंतर भगवान ने तो नहीं बनाया। भक्त और भगवान के बीच के अंतर को खत्म करने के लिए ही गोविंद ने गीता का ज्ञान दिया। कलयुग में मनुष्य ने गीता से दूरी बनाकर अपने आप को गोविंद से दूर कर लिया।

प्रेम पर क्या है गीता के अनुसार –

श्री मदभागवत गीता के अध्याय- 9, श्लोक-14 के अनुसार –

“सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते।।”

– गीता 9.14

अर्थ- मेरे प्रति दृढ़निश्चयी, संकल्पित जो भक्त लगातार मेरा नाम लेते हुए कीर्तन आदि के माध्यम से मेरे गुणों का गायन करते हैं। एवं मुझे प्राप्त करने के लिए प्रयास करते मुझको बार-बार नमस्कार करते हुए हमेशा मेरे ध्यान में मगन होकर प्रेम से मेरी आराधना करते हैं।

श्रीमद् भगवद्गीता के अध्याय- 9 श्लोक- 26 के अनुसार –

“पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।”

– गीता 9.26



अर्थात- मेरे जो भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्ता, फूल, फल, पानी आदि अर्पण करते हैं। उस उत्तम बुद्धि निष्काम-निःस्वार्थ प्रेम करने वाले भक्त द्वारा प्रेम से अर्पित किया हुआ सब कुछ मैं ग्रहण करता हूँ।

गीता के अध्याय- 9 श्लोक- 29 के अनुसार प्रेम क्या है-

“समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।।”

– गीता 9.29


अर्थात- मैं समस्त जीवधारियों के साथ समान व्यवहार करता हूँ! मैं किसी से भी किसी प्रकार का द्वेष नहीं करता हूँ। और न ही किसी के साथ पक्षपात या भेदभाव करता हूँ। परन्तु जो भक्त मेरी प्रेम से भक्ति और आराधना करते हैं। वे मुझमें समाहित हैं। और मैं भी उन भक्तजनों में समाहित हूँ।

श्री गीता जी के अध्याय-12 के श्लोक 13-14 के अनुसार-

“अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥”

– गीता 12.13

“सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥”

– गीता 12.14

अर्थात- मेरा जो भक्त किसी भी जीवधारी से द्वेषभावना नहीं रखता, परंतु सभी जीवों का करुणामयी मित्र है! जो स्वयं को स्वामी नहीं समझता और झूठे अहंकार से दूर है! जो सुख-दुख सभी परिस्थितियों में समान भाव रखता है।

सहिष्णु भी है, हमेशा आत्मा में संतुष्टि रखता है। संयम का वर्ताव करता है! और जो दृढनिश्चय के साथ मन तथा बुद्धि स्थायी करके मेरी भक्ति एवं आराधना में लगा रहता है, ऐसे भक्तजन मुझे अत्यन्त प्रिय हैं ।

गीता के अनुसार सच्चा प्यार क्या है –

“गीता में तो निस्वार्थ और आध्यात्मिक प्रेम को विस्तार से समझाया गया है! श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार प्रेम किसी को पाना नहीं बल्कि उसमें खो जाना है! प्रेम वही है, जिसमें त्याग हो और स्वार्थ की भावना नहीं हो।”

श्री भगवद्गीता में भौतिक, सांसारिक, स्वार्थपूर्ण प्रेम पर कुछ नहीं लिखा है! भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहा है प्रेम वो नहीं जी छीनने से प्राप्त हो! गीता के अनुसार किसी से ज्यादा लगाव हानिकारक हो जाता है! किसी से अत्यधिक लगाव आशा की तरफ ले जाता है और आशा दुख का कारण बन जाती है।

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