जैसा कि आपको पता है। आदियोगी के प्रत्येक अंक में कुछ अलग होता है। इस अंक में छोटे संस्कृत श्लोक easy, One Line with meaning और Two Line संग्रहित हैं। इन श्लोकों की विशेषता ये होती है। कि इनको आसान से याद किया जा सकता है। आसानी से बोला जा सकता है। आसानी से पढ़ा एवं लिखा जा सकता है।
हमारे प्राचीन ग्रंथ एवं शास्त्र श्लोक प्रधान हैं। क्योंकि संस्कृत ही हमारी प्राचीन भाषा है। हमारे पूर्वज हिंदी बोलने के पहले संस्कृत ही बोला एवं लिखा पढा करते थे। वार्तालाप एवं कथोपकथन का माध्यम श्लोक ही थे। इनमें गति होती है। यति तथा लय होती है। इस संग्रह के श्लोक भी आसानी से आप याद कर सकते हैं।
छोटे संस्कृत श्लोक one line with meaning
“यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।”
– सं. स.
अर्थ – जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है। उनका सम्मान नही होता है। वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
“आस्ते भग आसीनस्य।”
– सं. स.
अर्थात- ठहरे हुए व्यक्ति का सौभाग्य भी ठहर जाता है।
“सर्ववस्तूनि कारणोद्भवानि।”
– सं. स.
अर्थात- हर चीज़ किसी न किसी कारणवश ही घटित होती है।
“बाणेन युद्धं, न तु भाषणेन।”
– सं. स.
अर्थात् - युद्ध तीर से लड़ा जाता है, न कि भाषणों से।
“सर्वम् जयति अक्रोध:।”
-सं. स.
अर्थात् - क्रोध पर नियंत्रण करने से सब को जीता जा सकता है।
“विषकुम्भं, पयोमुखं।”
– सं. स.
अर्थात- जहर से भरा घड़ा, ऊपर ऊपर दूध।
“यतो धर्मस्ततो जया।”
– सं. स.
अर्थ - जहाँ धर्म है वहाँ जय (जीत) है।
“जीवेषु करुणा चापि मैत्री तेषु विधीयताम् ।”
– सं. स.
अर्थ - जीवों पर करुणा एवं मैत्री कीजिये।
“न कंचित् शाश्वतम्।”
– सं. स.
अर्थात- कुछ भी स्थायी नहीं है।
“पुरा नवं भवतीति।”
– सं. स.
अर्थात - जो पहले नया था अब नहीं।
“अत्यद्भुतं ते भवतु अग्रिमं वर्षम्।”
– सं. स.
अर्थात- आने वाला साल आपके लिए अच्छा हो।
“अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन।”
– सं. स.
अर्थ - धन से अमरत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता।
“सः रक्षतु मयानुरक्तां सर्वान्।”
– सं. स.
अर्थ - ईश्वर हर उस व्यक्ति की रक्षा करे जिससे मैं प्यार करता हूँ।
“अयं बंधुरयं नेति गणना लघुचेतसाम्।”
– सं. स.
अर्थात- यह मेरा बंधु है वह मेरा बंधु नहीं है ऐसा विचार या भेदभाव छोटी चेतना वाले व्यक्ति करते हैं।

“उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्।”
– सं. स.
अर्थात- उदार चरित्र के व्यक्ति संपूर्ण विश्व को ही परिवार मानते हैं ।
“ॐ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।”
– सं. स.
अर्थात - हे ईश्वर (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
“मृत्योर्मामृतं गमय।”
– सं. स.
अर्थ - मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
“आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।”
– सं. स.
अर्थात- मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है।
“नास्ति विद्यासमं चक्षुः।”
– सं. स.
अर्थात- विद्या के समान कोई आँख नहीं है।
“अन्धानां नीयमाना यथान्धा:।”
– सं. स.
अर्थ - अंधे को अंधा राह दिखाए (तो दोनों कुँए में गिरते हैं) ।
“दीर्घसूत्री विनश्यति। ”
– सं. स.
अर्थात - लंबे समय तक किया गया आलस्य विनाश का कारण होता है।
“दानेन पाणिर्न तु कंकणेन।”
– सं. स.
अर्थात- हाथों की सुन्दरता कंगन पहनने से नहीं होती बल्कि दान देने से होती है।
“चरैवेति चरैवेति।”
– सं. स.
अर्थात- चलते रहो, चलते रहो।
“उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।”
– सं. स.
अर्थात- व्यक्ति के मेहनत करने से ही उसके काम पूरे होते हैं। सिर्फ इच्छा करने से उसके काम पूरे नहीं होते।
“प्रासाद शिखर स्थोपि काक: किं गुरुड़ायते।”
– सं. स.
अर्थात- महल के शिखर पर बैठने से कौआ गरुड़ नहीं हो पाता।
“मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।”
– सं. स.
अर्थात- प्रत्येक व्यक्ति की सोच अलग होती है।
“न स्त्रीरत्नसमं रत्नम्।”
– सं. स.
अर्थात- स्त्रीरत्न के समान और कोई रत्न नहीं है।
“ऋतस्य पन्थाम न तरन्ति दुष्कृतः।”
– सं. स.
अर्थात- दुराचारी लोग, सत्य के मार्ग को पार कर ही नहीं सकते।
“अनुभवः वास्तविकतास्ति।”
– सं. स.
अर्थात- अनुभव ही वास्तविकता है।
“एतदपि गमिष्यति।”
– सं. स.
अर्थात- यह भी गुज़र जायेगा।
“भयमेवास्ति शत्रुः।”
– सं. स.
अर्थात- भय ही एक मात्र शत्रु है।
“पय: पानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम्।”
– सं. स.
अर्थ - साँपों को दूध पिलाना उनके विष को बढ़ाना है।
“बह्वारम्भे लघुक्रिया।”
– सं. स.
अर्थ - खोदा पहाड़ निकली चुहिया।
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।”
– सं. स.
अर्थात- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है।
अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं।
“प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिराद्रान्तरात्मा।”
– सं. स.
अर्थ - जो कोमल हृदय के होते हैं। वे प्रायः करुणामय होते हैं।
“सिंहवत्सर्ववेगेन पतन्त्यर्थे किलार्थिनः।”
– सं. स.
अर्थात- जो कार्य संपन्न करना चाहते हैं, वे सिंह की तरह अधिकतम वेग से कार्य पर टूट पड़ते हैं।
“अति सर्वनाशहेतुर्ह्यतोऽत्यन्तं विवर्जयेत्।”
– सं. स.
अर्थ - अति सर्वनाश का कारण है, इसलिये अति का सर्वथा परिहार्य करें।
“आपन्नस्य पुरे पुरस्तव करात् ग्रामोऽपि विभ्रश्यते।”
– सं. स.
अर्थ - तुम शहर में क्या फँसे देखते-देखते गाँव भी तुम्हारे हाथों से छूट गया।
“कुटुंबं कीर्त्याः प्राक्।”
– सं. स.
अर्थ - प्रसिद्धि से पहले परिवार।
“विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।”
– सं. स.
अर्थात- विद्या विनम्रता प्रदान करती है, विनम्रता से मनुष्य योग्यता प्राप्त करता है।
“अति भक्ति, चोरेर लक्षणं।”
– सं. स.
अर्थात- कोई व्यक्ति बहुत अधिक भक्ति दिखा रहा हो तो उसके मन में चोर हो सकता है।
“प्रेम कुरु यदा शक्नोसि, श्वः न विश्वस्तः।”
– सं. स.
अर्थात- जब प्रेम कर सकते हैं करिए, कल का कोई विश्वास नहीं।
“न कूप खननम् युक्तं, प्रदीप्ते वह्निन गृहे।”
– सं. स.
अर्थात- घर में आग लगने पर कुआं खोदना किस काम का।
“न कदापि स्वप्नदर्शनात्विरमिष्यामि।”
– सं. स.
अर्थात- मैं सपने देखना कभी नहीं छोडूंगा।
“अमित्रस्य कुतः सुखम् !”
– सं. स.
अर्थात- बिना मित्र भला सुख कहाँ ।
“अतृणे पतितो वह्रि: स्वयमेवोय शाम्यति।”
– सं. स.
अर्थात- तिनकों-रहित स्थान में पड़ी हुई अग्नि स्वयं शमित (शान्त) हो जाती है।
“अस्माकं कार्याणि अस्मान्सावधीकरिष्यंति।”
– सं. स.
अर्थात- हमारा कार्य ही हमें परिभाषित करता है।
“न भाति तुरग: खरयूथ मध्ये।”
– सं. स.
अर्थात- गधों के बीच घोड़ा शोभा नहीं देता।
छोटे संस्कृत श्लोक Two Liner easy

“अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद् गजभूषणं।
– सं. स.
चातुर्यम् भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणं।।”
अर्थ- घोड़े की शोभा उसके वेग से,हाथी की शोभा उसकी मदमस्त चाल से,नारियों की शोभा उनकी विभिन्न कार्यों में दक्षता के कारण और पुरुषों की उनकी उद्योगशीलता के कारण होती है(न कि दिवास्वप्न से)।
“पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
– सं. स.
पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवता।।”
अर्थ- पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
“दुर्जनः प्रियवादी च नैतद्विश्र्चासकारणम् । मधु तिष्ठति जिह्याग्रे हदये तु हलाहलम् ॥”
– सं. स.
अर्थ - दुर्जन प्रिय बोलने वाला हो फिर भी विश्वास करने योग्य नहीं होता क्योंकि चाहे उसकी जबान पर भले ही मधु हो पर हृदय में तो हलाहल जहर ही होता है।
“प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः।
– सं. स.
सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः ॥”
अर्थात- सागर प्रलय आने पर वह भी अपनी मर्यादा भूल जाता है और किनारों को तोड़कर जल-थल एक कर देता है; परन्तु साधु अथवा श्रेठ व्यक्ति संकटों का पहाड़ टूटने पर भी श्रेठ मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करता।
“श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वान्हे चापरान्हिकम्।
– सं. स.
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम्।।”
अर्थ - जिस काम को कल करना है उसे आज और जो काम शाम के समय करना हो तो उसे सुबह के समय ही पूर्ण कर लेना चाहिए। क्योंकि मृत्यु कभी यह नहीं देखती कि इसका काम अभी भी बाकी है।
“महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना ।
– सं. स.
धियो विश्वा वि राजति ॥”
अर्थात - हे महाभाग्यवती ज्ञानरूपा कमल के समान विशाल नेत्र वाली ज्ञानदात्री सरस्वती ! मुझे विद्या दो, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
Conclusion –
प्रस्तुत अंक में एक लाइन के श्लोकों का छोटा सा संग्रह था। आप इनको आसानी से पढ़ सकते हैं! यह हमारी प्राचीन भाषा है। यदि हम इनको याद नहीं करेंगे! तो धीरे धीरे इनका लोप हो जाएगा। यही हमारी प्राचीन विरासत है! अपनी विरासत का लोप सम्भवतः किसी को भी पसंद नहीं होगा।
विश्व में अनेक भाषाएं बोली एवं लिखी पढ़ी जाती हैं! क्या आपको पता है कि सबसे साइंस्टिफिक भाषा कौन सी है? संस्कृत, यही सबसे प्राचीन एवं साइंस्टिफिक भाषा है। जागृत युवा पीढी धीरे धीरे संस्कृत की ओर अग्रसर हो रही है! संस्कृत ही हमारी संस्कृति है। ऐसा मनोभाव प्रत्येक भारतीय संस्कृति के मानने वाले का होना चाहिए।
प्रिय पाठक..! आप हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। ठीक वैसे ही आपके सुझाव भी हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं! ज्ञान रूपी गंगा अवाद्य गति से बहती रहे। इसके लिए इस छोटे से प्रयास पर आपके सुझाव आमंत्रित हैं! आप अपने सुझाव ‘कमेंट’ के माध्यम से प्रस्तुत कर सकते हैं।
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