कृष्ण की चेतावनी ‘रश्मिरथी’

इस अंक में कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी द्वारा रचित कृष्ण की चेतावनी संकलित है। जो कि 1952 में प्रकाशित हुए कालजयी खंडकाव्य ‘रश्मिरथी’ का अंश है। वैसे तो इस खंडकाव्य का मुख्य नायक कर्ण है। जिसे इस खंडकाव्य में राधेय भी कहा गया है। इस रचना के माध्यम से दिनकर जी ने महाभारत के सभी पात्रो का चरित्र-चित्रण किया है। रश्मिरथी महाभारत काल में समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था एवं समाज में व्याप्त विभिन्न कुरीतियों एवं बुराइयों को रेखांकित करती है। नायक कर्ण जो कि महान योद्धा था। उसका पालन – पोषण शूद्र वंश में हुआ था। जबकि वास्तविकता में तो वह कुन्ती का पुत्र था। शूद्र वंश में पलने के कारण सब उसे सूत पुत्र कहकर चिढाते थे। और उसको हेय दृष्टि से देखा जाता था। यह उस समय की कुरीतियों का उदाहरण है।

Krishna ki chetavani

खंडकाव्य के प्रस्तुत अंश में जब भगवान श्री कृष्ण कुरूपति की सभा में जाते हैं। और पांडवों के हितार्थ केवल पांच गाँब मांगते हैं। इस बात पर भी दुर्योधन साफ इंकार कर देता है। और कहता है कि पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा। और भगवान श्री कृष्ण को बांधने की धमकी देता है। भगवान श्री कहते हैं, कि न्याय की बात तो यह है कि पांडवों को आधा राज्य मिलना चाहिए। लेकिन तुम तो पांच गांव देने के लिए भी राजी नहीं हो। तो फिर ऐसा भीषण युद्ध होगा जैसा न कभी हुआ है। और न कभी ऐसा होगा। कहावत है, “विनाश के समय पर मनुष्य विवेक शून्य हो जाता है।

कृष्ण की चेतावनी

श्री कृष्ण की चेतावनी ।।
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।

सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।


मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।


‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।


हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।

जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।


हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।


यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।


अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।


‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।


दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।


‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर,अचर,जीव,जग,क्षर,अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।


शत कोटि सूर्य शत कोटि चन्द्र
शत कोटि सरित सर सिन्धु मन्द्र
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति धनेश
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।


‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।


‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।


सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।


‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।


सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।


याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।


‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।


दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।


‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।


आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’


थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
भीष्म विदुर सुख पाते थे।


कर जोड़ खड़े प्रमुदित निर्भय
दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’।

निष्कर्ष –

कृष्ण के समझाने पर भी अहंकारी दुर्योधन को रत्ती भर बात समझ न आई। सभी भाइयों के साथ स्वयं भी मारा गया एवं पूरी कौरव सेना को भी मरवा दिया। सम्पूर्ण राज्य भी पांडवों का हो गया। प्रस्तुत अंक का सार भाव है, कि सम्पूर्ण अहंकार का मनुष्य को परित्याग कर देना चाहिए।

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