कर्म पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

इस अंक में कर्म पर संस्कृत श्लोक हिन्दी अर्थ सहित प्रस्तुत हैं । श्लोक दो लाइन की रचना होती है। जिसे संस्कृत में वार्तालाप करने अथवा कथोपकथन के लिए उपयोग किया जाता है। श्लोक प्रायः छंद के रूप में होते हैं।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में कर्म को विभिन्न तरीकों से समझाया गया है। मुख्य रूप से श्रीमद्भागवत गीता में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कर्म को समझाया है। प्रस्तुत अंक में अधिकतम श्लोक श्रीमद्भागवत गीता के श्लोक संकलित हैं।

कर्म पर संस्कृत श्लोक

प्राचीन काल से अब तक अनेक विद्वानों एवं ऋषियों ने अलग अलग कर्म की परिभाषा दी। समयानुसार सबके अपने अपने मत हैं। और सब मतों का एक ही सार है कि मनुष्यों को बुरे कर्म कदापि नहीं करने चाहिए। जो बुरे कर्म करता है, उसे बुरे कर्म का बुरा ही फल प्राप्त होता है।

कर्म पर संस्कृत श्लोक

“बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।”

– कर्म पर श्लोक
अर्थ- समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है? इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है।

“कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः। जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक
अर्थ- बुद्धियोग युक्त मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये अनामय अर्थात् निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।

“न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक
अर्थात - कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) प्राप्त करता है।

“यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक
अर्थ - हे अर्जुन! जो मनुष्य मनसे इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके आसक्ति रहित होकर (निष्काम भाव से) समस्त इन्द्रियों के द्वारा कर्म योग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

“नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक
अर्थ - तुम शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म करो; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।

“यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक
अर्थात - यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्याग कर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक् आचरण करो।

“तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक

 अर्थ – तू सतत आसक्ति से दूर होकर कर्म और कर्तव्य का उचित निर्वहन कर। क्योंकि आसक्ति से दूर होकर कर्म करने वाला मनुष्य ईश्वर को प्राप्त होता है।

इस भाग के प्रथम चरण में श्री कृष्ण जी की स्तुति अर्थ सहित संकलित थे। तत्पश्चात अर्थ सहित संस्कृत श्लोकों का उल्लेख था।

कर्म पर संस्कृत उद्धरण

“कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक

  अर्थ – जनक जैसे राजा एवं अन्य महापुरुष भी कर्म के माध्यम से ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। अतः लोक-संग्रह को दृष्टिगत रखते हुए तू भी कर्म करने के योग्य है।

“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक

  अर्थात- आदर्श मनुष्य के आचरण के अनुरूप ही, अन्य मनुष्यों का आचरण हो जाता है। वो जैसे उदाहरण प्रस्तुत करता है। अन्य लोग भी उनका अनुसरण करते हैं।

“न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक

अर्थ – हे अर्जुन! मुझे कोई भी कर्तव्य नहीं है, तीनों लोकों में। न कोई ऐसी वस्तु है जो मुझे प्राप्त न हो। फिर भी मैं कर्म और कर्तव्य का निर्वहन करता रहता हूँ।

“यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक

अर्थ – हे अर्जुन यदि मैं सावधानी पूर्वक कर न करूं तो बड़ा नुकसान ही जाएगा! क्योंकि मनुष्य तो मेरे बताए रास्ते पर चलते हैं।

“उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक

अर्थात – हे अर्जुन यदि मैं कोई कर्म न करूं तो, तीनों लोक समाप्त हो जाएंगे ! मैं वर्ण को संकर करने वाला एवं प्रजा का विनाश करने वाला बन जाऊंगा।

“सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक

अर्थ – हे अर्जुन ! कर्म में मुग्ध अज्ञानी लोग जैसे कर्म किया करते हैं ! उसी प्रकार ज्ञानी लोगों को बिना मुग्ध हुए, लोक कल्याण की भावना से कर्म करने चाहिए।

“न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्।”

– कर्म पर संस्कृत श्लोक

अर्थ – विद्वान लोंगो को, कर्मों में मुग्ध अज्ञानियों की वुद्धि में भृम पैदा नहीं करना चाहिए ! ज्ञानी मनुष्य भक्तिमय होकर कर्मों का उचित आचरण करें एवं अज्ञानियों से भी कराएं।

गीता के श्लोक

“प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।”

– गीता श्लोक

अर्थ – समस्त कर्म सर्व प्रकृतियों के गुणों से सम्पादित होते हैं। लेकिन अहंकारी और अज्ञानी मनुष्य को ऐसा लगता है ! जैसे मैं ही सब कर रहा हूँ।

“तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।”

– श्रीमद्भागवत गीता
अर्थ - परन्तु हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग के सत्य (तत्त्व) को जानने वाला ज्ञानी पुरुष यह जानकर कि "गुण गुणों में बर्तते हैं" (कर्म में) आसक्त नहीं होता।

“प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।”

– श्रीमद्भागवत गीता
अर्थ - प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्म में आसक्त होते हैं, उन अपूर्ण ज्ञान वाले अकृत्स्नविद: मंदबुद्धि पुरुषों को पूर्ण ज्ञान प्राप्त पुरुष विचलित न करे।

“मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।”

– श्रीमद्भागवत गीता

अर्थात – भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं..! अर्जुन अपनी उत्तम वुद्धि से समस्त कर्म और कर्तव्य मुझे अर्पित कर दे ! समस्त कामनाओं और ममता एवं संताप से दूर होकर युद्ध कर।

“ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा:।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि:।।”

– श्रीमद्भागवत गीता


अर्थ – जो लोग दोष दृष्टि से परे होकर मेरे विचारों का पर चलते हैं ! वो लोग समस्त कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।

निष्कर्ष –

इस अंक में आपने कर्म पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित पढ़े। और संभवतः ईश्वर भी यही चाहते हैं! कि हमें आसक्तियों का त्याग करके कर्म और कर्तव्य का निरंतर अनुसरण करते रहना चाहिए।

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